
साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में पैदा होने वालों ने जो क्रिकेट देखा है, जितने एक से बढ़कर एक खिलाड़ियों को खेलते देखा, जो दीवानगी देखी वो इसके बाद की पीढ़ियाँ कभी नहीं देख पायेंगी।
हमने वो दौर देखा है जब वनडे मैच के एक दिन पहले से ही सारी तैयारियाँ कर ली जाती थीं, सुबह जल्दी उठकर, नहाकर तैयार होकर टीवी के सामने बैठ जाते थे और एक बॉल भी मिस करना अपराधबोध करा देता था।
पूरा मैच देखने के बावजूद हाइलाइट्स भी देखना ज़रूरी होता था। बेंसन & हेजेस सीरीज़ हम सुबह 4 बजे उठकर रजाई में घुसकर देखते थे, हमने सुनील गावस्कर, कपिल देव, कृष्णामाचारी श्रीकांत, दिलीप वेंगसरकर, संदीप पाटिल, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली राहुल द्रविड़, लक्ष्मण, महेंद्र सिंह धोनी, विराट कोहली, मैल्कम मार्शल, माइकल होल्डिंग, कर्टली एम्ब्रोज़, कोर्टनी वॉल्श, पैट्रिक पीटरसन, ब्रायन लारा, विवियन रिचर्ड्स, अब्दुल क़ादिर, इमरान खान, वसीम अकरम, वकार यूनुस, इंज़माम उल हक, सलीम मालिक, सईद अनवर, आमिर सोहेल, जैफ क्रो, मार्टिन क्रो, रदरफोर्ड, मार्क वॉ, स्टीव वॉ, डेविड बून, जैफ मार्श, शेन वॉर्न, शेन वॉटसन, हैंसी क्रोनिए, जोंटी रोड्स, सनथ जयसूर्या, असांथा गुरूसिंघे, अरविंद डीसिल्वा, अर्जुन रणतुंगा, मलिंगा और इनके जैसे विश्व भर के अनेकों धुरंधर खिलाड़ियों को खेलते देखा है।
हमने देखा बेंसन & हेजेस सीरीज़ जीतने का उत्साह, दिन के क्रिकेट से कृत्रिम रोशनी का क्रिकेट, लाल गेंद को सफेद होते देखा, क्रिकेट को सफेद ड्रेस से रंगबिरंगी ड्रेस में बदलते देखा।
हमने 1987 विश्वकप में चेतन शर्मा की हैट्रिक देखी, हमने कपिल देव को पहली बार भारत को विश्व विजेता बनाते देखा, हमने 1985 में रॉथमैन्स कप में महज 125 रनों पर आउट होने के बाद पाकिस्तान को 87 रनों पर ऑल आउट होते देखा, हमने ज़िम्बाब्वे के विरुद्ध कपिल देव की तूफानी पारी देखी, हमने श्रीकांत का आग उगलता बल्ला देखा, हमने वीरेंद्र सहवाग को दुनिया के बेहतरीन गेंदबाज़ों को बेरहमी से पीटते देखा, हमने सचिन तेंदुलकर को विश्वकप थामे देखा, हमने मैदान पर खिलाड़ियों के कंधे पर चक्कर लगाते, खुशी से पागल सचिन देखा, हमने सचिन को 16 साल की उम्र में टीम में आने के बाद से लेकर तो अंतिम मैच तक देखा, हमने एक के बाद एक पाकिस्तान को विश्वकप में हराती टीम इंडिया को देखा, हमने धीमा खेलकर भारत को हरवाने वाले रवि शास्त्री को देखा और उसके आउट होने की प्रार्थना करते देखा है।
हमने जावेद मियाँदाद को चेतन शर्मा को मैच की आखरी गेंद पर छक्का लगाते देखा, हमने ऋषिकेश कानिटकर को पाकिस्तान के छक्के का जवाब चौके से देते देखा, हमने 2011 विश्वकप में धोनी को छक्का लगाकर मैच जिताते देखा, हमने 1998 में शारजाह में सचिन तेंदुलकर का अद्भुत खेल देखा, हमने रेगिस्तानी तूफान में सचिन का तूफान देखा, हमने सौरव गांगुली का आक्रामक तेवर देखा, हमने सौरभ गांगुली को लॉर्ड्स के मैदान में शर्ट उतारकर जश्न मनाते देखा, हमने आखरी दम तक हार ना मानने वाले, अपनी अद्भुत बौद्धिक क्षमता से कठिन से कठिन मौकों पर निश्चित हार को जीत में बदलते माही को देखा, हमने धोनी की अद्भुत स्टम्पिंग, बिना विकेट की तरफ देखे रन आउट करते, थर्ड अंपायर से अपील करके अधिकतम फैसलों को अपने पक्ष में करवाते धोनी को देखा।
हमने ब्रायन लारा को टेस्ट क्रिकेट में 400 रन बनाते देखा, हमने ऑस्ट्रेलिया के 436 रनों का पीछा करते हुए दक्षिण अफ्रीका को जीतते देखा, हमने फॉलोऑन करते हुए राहुल द्रविड़, लक्ष्मण को बैटिंग करते और भारत को मैच जिताते हुए देखा।
बचपन में हमने मैच के अंतिम क्षणों में भारत की जीत के लिये घर के मंदिर में अगरबत्तियाँ जलाईं, हमने मन्नतें माँगी, हवन किये, प्रदर्शन किये, मैच हारने पर खिलाड़ियों के पुतले, पोस्टर जलाए, हमने विपक्षी टीम के खिलाड़ियों को आउट करने के लिए टोटके किये, उल्टी चप्पलें रखीं, भभूत फूँकी, हमने घरों में बैठकर खिलाड़ियों से भी अधिक उत्साह के साथ क्रिकेट खेला है।
हमने टीवी की दुकानों पर, पान की दुकानों पर, हेयर सलून पर, रेस्टोरेंट में, बार में, ऑफिस, दुकानों में पागलों की तरह क्रिकेट देखा है, हमको हर टीम के एक एक खिलाड़ी का नाम पता होता था, हम विपक्षी टीम के खिलाड़ियों की भी जमकर तारीफ करते थे, उनके अच्छे शॉट पर, कैच पर, बॉल पर, फील्डिंग पर हम बिना भेदभाव तालियाँ बजाते थे।
लेकिन अब क्रिकेट में वो जुनून, वो मज़ा और वैसे खिलाड़ी बचे ही नहीं हैं, अब मैच कब होता है पता नहीं चलता, अब आधी टीम के खिलाड़ियों के नाम भी नहीं पता हैं।
अब क्रिकेट असल में क्रिकेट रहा ही नहीं है, खिलाड़ियों की आईपीएल में नीलामी होती है और कहीं न कहीं इसमें क्रिकेट भी नीलाम हो गया है। अब कोई मैच देखने का मन नहीं होता, अब किसी खिलाड़ी के बारे में जानने की कोई उत्सुकता नहीं रहती है।
पैसे और क्रिकेट की अति ने क्रिकेट को ख़त्म कर दिया है, खिलाड़ी अब देश के लिये खेलते हुए लगते नहीं, हारने पर उनकी आँखों में वो दर्द, आँसू, शर्म अब दिखती नहीं।
दूसरे खेलों के खिलाड़ी, कोच अक्सर क्रिकेट को कोसते थे कि क्रिकेट ने दूसरे खेलों को निगल लिया है, लेकिन अब क्रिकेट अपने आपको निगल रहा है, अब ये भस्मासुर बन गया है।
अब क्रिकेट क्रिकेट रहा ही नहीं है, वो एक तमाशा बन गया है, पैसों का अड्डा बन गया है, जुआघर बन गया है, विज्ञापनों का बाज़ार बन गया है, न्यूज़ चैनलों की बकवास बन गया है।
हमने रेडियो, ट्रांज़िस्टर पर कॉमेंट्री सुनते, उत्साहित होते दीवाने देखे हैं, हमने हर विकेट पर, हर शॉट पर, हर चौके, छक्के पर घरों से आती आवाज़ें, शोर, जश्न सुना और देखा है, हमने एक से बढ़कर एक कॉमेंटेटर देखे, सुने हैं, हमने क्रिकेट को खाया है, पिया है, जिया है और ये सब पागलपन की हद तक किया है।
हमने बहुत क्रिकेट देखा, बहुत देखा, हद से ज़्यादा देखा..
लेकिन.. लेकिन..लेकिन..
अब क्रिकेट देखने का मन नहीं करता है..
अब क्रिकेट देखने का मन नहीं करता है..
अब क्रिकेट देखने का मन बिल्कुल नहीं करता है..
✍️ Harshal Khair